Vishnu Sahasranamam In Hindi | विष्णु सहस्त्रनाम

विष्णु सहस्त्रनाम में भगवान श्री हरि विष्णु अर्थात भगवान नारायण के 1000 नामों की सूची है जिसे जपने मात्र से भक्तो के समस्त दुख और कष्ट दूर हो जाते हैं, और भगवान विष्णु की कृपा प्राप्त हो जाती है। विष्णु सहस्त्रनाम (Vishnu Sahasranamam Stotram)  का जाप करने में कोई ज्यादा नियम विधि नहीं है बस मन में श्रद्धा और अटूट विश्वास होना चाहिए। भगवान की पूजा करने का एक विधान है कि आपके पास पूजन की सामग्री हो या ना हो पर मन में अपने इष्ट के प्रति अटूट विश्वास और श्रद्धा होनी चाहिए। ठीक उसी प्रकार विष्णु सहस्रनाम का पाठ करते समय भक्त के हृदय में भगवान श्री विष्णु अर्थात नारायण के प्रति पूर्ण प्रेम श्रद्धा विश्वास और समर्पण भाव का होना अति आवश्यक है। 

लोगो की मान्यता है कि जो भक्त अपनी इच्छा पूर्ण करवाना चाहते है, उन्हें बृहस्पतिवार के दिन पीले रंग के आसन पर बैठकर भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। इसके जप से उनकी सभी कामनाएं पूर्ण हो जायेंगी। 

विष्णु सहस्रनाम पाठ हिंदी मे।Vishnu Sahasranamam Stotram in Hindi

ॐ  नमो भगवते वासुदेवाय नमः 

 ।। अथ श्री विष्णु सहस्रनाम स्तोत्रम् ॥

यस्य स्मरणमात्रेण जन्मसंसारबन्धनात् । विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवे प्रभविष्णवे ।

हिंदी अर्थ – जिनके स्मरण करने मात्र से मनुष्य जन्म-मृत्यु रूप संसार बन्धन से मुक्त हो जाता है, सबकी उत्पत्ति के कारणभूत उन भगवान विष्णु को नमस्कार है।

नमः समस्तभूतानामादिभूताय भूभृते । अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे ।

हिंदी अर्थ – सम्पूर्ण प्राणियों के आदिभूत, पृथ्वी को धारण करने वाले, अनेक रूपधारी और सर्वसमर्थ भगवान विष्णु को प्रणाम है।

[ वैशम्पायन उवाच ]

श्रुत्वा धर्मानशेषेण पावनानि च सर्वशः । युधिष्ठिरः शान्तनवं पुनरेवाभ्यभाषत ॥1॥

अर्थ – [ वैशम्पायन जी कहते हैं] राजन् ! धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर ने सम्पूर्ण विधिरूप धर्म तथा पापों का क्षय करने वाले धर्म रहस्यों को सब प्रकार सुनकर शान्तनु पुत्र भीष्म से फिर पूछा ॥1॥

[ युधिष्ठिर उवाच ]

किमेकं दैवतं लोके किं वाप्येकं परायणम् । स्तुवन्तः कं कमर्चन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम् ॥2॥

अर्थ – [ युधिष्ठिर बोले ] समस्त जगत में एक ही देव कौन है? तथा इस लोक में एक ही परम आश्रय स्थान कौन है ? जिसका साक्षात्कार कर लेने पर जीव की अविद्यारूप हृदय-ग्रन्थि टूट जाती है, सब संशय नष्ट हो जाते हैं तथा सम्पूर्ण कर्म क्षीण हो जाते हैं। किस देव की स्तुति, गुण-कीर्तन करने से तथा किस देव का नाना प्रकार से बाह्य और आन्तरिक पूजन करने से मनुष्य कल्याण की प्राप्ति कर सकते हैं ? ॥2॥

को धर्मः सर्वधर्माणां भवतः परमो मतः । किं जपन्मुच्यते जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात् ॥3॥

अर्थ – आप समस्त धर्मों में पूर्वोक्त लक्षणों से युक्त किस धर्म को परम श्रेष्ठ मानते हैं ? तथा किसका जप करने से जीव जन्म-मरणरूप संसार बंधन से मुक्त हो जाता है ? ॥3॥

[ भीष्म उवाच ]

जगत्प्रभुं देवदेवमनन्तं पुरुषोत्तमम् । स्तुवन्नामसहस्रेण पुरुषः सततोत्थितः ॥4॥

अर्थ – [ भीष्म जी ने कहा ] स्थावर जंगमरूप संसार के स्वामी, ब्रह्मादि देवों के देव, देश-काल और वस्तु से अपरिच्छिन्न, क्षर-अक्षर से श्रेष्ठ पुरुषोत्तम का सहस्र नामों के द्वारा निरन्तर तत्पर रह कर गुण-संकीर्तन करने से पुरुष सब दुःखों से पार हो जाता है ॥4॥

तमेव चार्चयन्नित्यं भक्त्या पुरुषमव्ययम् । ध्यायन्स्तुवन्नमस्यंश्च यजमानस्तमेव च ॥5॥

अर्थ तथा उसी विनाशरहित पुरुष का सब समय भक्ति से युक्त होकर पूजन करने से, उसी का ध्यान करने से तथा पूर्वोक्त प्रकार से सहस्र नामों के द्वारा स्तवन एवं नमस्कार करने से पूजा करने वाला सब दुःखों से छूट जाता है ॥5॥

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अनादिनिधनं विष्णुं सर्वलोकमहेश्वरम् । लोकाध्यक्षं स्तुवन्नित्यं सर्वदुःखातिगो भवेत् ॥6॥

अर्थ – उस जन्म-मृत्यु आदि छः भाव विकारों से रहित, सर्वव्यापक, सम्पूर्ण लोकों के महेश्वर, लोकाध्यक्ष देव की निरन्तर स्तुति करने से मनुष्य सब दुःखों से पार हो जाता है ॥6॥

ब्रह्मण्यं सर्वधर्मज्ञं लोकानां कीर्तिवर्धनम् । लोकनाथं महद्भूतं सर्वभूतभवोद्भवम् ॥7॥

अर्थ – जगत की रचना करने वाले ब्रह्मा के तथा ब्राह्मण, तप और श्रुति के हितकारी, सब धर्मों को जानने वाले, प्राणियों की कीर्ति को बढ़ाने वाले, सम्पूर्ण लोकों के स्वामी, समस्त भूतों के उत्पत्ति स्थान एवं संसार के कारणरूप परमेश्वर का स्तवन करने से मनुष्य सब दुःखों से छूट जाता है ॥7॥

एष मे सर्वधर्माणां धर्मोऽधिकतमो मतः । यद्भक्त्या पुण्डरीकाक्षं स्तवैरर्चेन्नरः सदा ॥४॥

अर्थ – विधिरूप सम्पूर्ण धर्मों में मैं इसी धर्म को सबसे बड़ा मानता हूँ कि मनुष्य अपने हृदय कमल में विराजमान कमलनयन भगवान वासुदेव का भक्तिपूर्वक तत्परता सहित गुण-संकीर्तन रूप स्तुतियों से सदा अर्चन करे ॥8॥

परमं यो महत्तेजः परमं यो महत्तपः । परमं यो महद्ब्रह्म परमं यः परायणम् ॥9॥

अर्थ – जो देव परम तेज, परम तप, परम ब्रह्म और परम परायण है, वही समस्त प्राणियों की परम गति है ॥9॥

पवित्राणां पवित्रं यो मङ्गलानां च मङ्गलम् । दैवतं देवतानां च भूतानां योऽव्ययः पिता ॥10॥

 यतः सर्वाणि भूतानि भवन्त्यादियुगागमे । यस्मिंश्च प्रलयं यान्ति पुनरेव युगक्षये ॥11॥

 तस्य लोकप्रधानस्य जगन्नाथस्य भूपते ।। विष्णोर्नामसहस्रं मे शृणु पापभयापहम् ॥12॥

अर्थ – पृथ्वीपते ! जो पवित्र करने वाले तीर्थादिकों में परम पवित्र है, मंगलों का मंगल है, देवों का देव है तथा जो भूत प्राणियों का अविनाशी पिता है, कल्प के आदि में जिससे सम्पूर्ण भूत उत्पन्न होते हैं और फिर युग का क्षय होने पर महाप्रलय में जिसमें वे विलीन हो जाते हैं, उस लोकप्रधान, संसार के(Vishnu Sahasranamam )के पाप और संसार भय को दूर करने वाले हजार नामों को मुझसे सुन ॥10-12॥

यानि नामानि गौणानि विख्यातानि महात्मनः । ऋषिभिः परिगीतानि तानि वक्ष्यामि भूतये ॥13॥

अर्थ – जो नाम गुण के कारण प्रवृत्त हुए हैं, उनमें से जो-जो प्रसिद्ध हैं और मन्त्रद्रष्टा मुनियों द्वारा जो जहाँ-तहाँ सर्वत्र भगवत्कथाओं में गाये गये हैं, उस अचिन्त्य प्रभाव महात्मा के उन समस्त नामों को पुरुषार्थ सिद्धि के लिये वर्णन करता हूँ ॥13॥

ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्कारो भूतभव्यभवत्प्रभुः । भूतकृद् भूतभृद् भावो भूतात्मा भूतभावनः ॥14॥

अर्थ – ॐ सच्चिदानन्द स्वरूप, 1 विश्वम्-  समस्त जगत के कारणरूप, 2 विष्णुः – सर्वव्यापी, 3 वषट्कारः- जिनके उद्देश्य से यज्ञ में वषक्रिया की जाती है, ऐसे यज्ञस्वरूप,      4 भूतभव्यभवत्प्रभुः – भूत, भविष्य और वर्तमान के स्वामी, 5 भूतकृत् रजोगुण का आश्रय लेकर ब्रह्मारूप से सम्पूर्ण भूतों की रचना करने वाले, 6 भूतभृत् – सत्त्वगुण का आश्रय लेकर सम्पूर्ण भूतों का पालन-पोषण करने वाले, 7 भावः – नित्यस्वरूप होते हुए भी स्वतः उत्पन्न होने वाले, 8 भूतात्मा – सम्पूर्ण भूतों के आत्मा अर्थात अन्तर्यामी, 9 भूतभावनः –  भूतों की उत्पत्ति और वृद्धि करने वाले ॥14॥

पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमा गतिः । अव्ययः पुरुषः साक्षी क्षेत्रज्ञोऽक्षर एव च ॥15॥

अर्थ – 10 पूतात्मा – पवित्रात्मा, 11 परमात्मा – परम श्रेष्ठ नित्यशुद्ध-बुद्ध मुक्त स्वभाव, 12 मुक्तानां परमा गतिः – मुक्त पुरुषों की सर्वश्रेष्ठ गतिस्वरूप, 13 अव्ययः – कभी विनाश को प्राप्त न होने वाले, 14 पुरुषः – पुर अर्थात शरीर में शयन करने वाले, 15 साक्षी– बिना किसी व्यवधान के सब कुछ देखने वाले, 16 क्षेत्रज्ञः – क्षेत्र अर्थात समस्त प्रकृति रूप शरीर को पूर्णतया जानने वाले, 17 अक्षरः – कभी क्षीण न होने वाले ॥15॥ 

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योगो योगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः । नारसिंहवपुः श्रीमान्केशवः पुरुषोत्तमः ॥16॥

अर्थ – 18 योगः – मनसहित सम्पूर्ण ज्ञानेन्द्रियों के निरोधरूप योग से प्राप्त होने वाले, 19 योगविदां नेता योग को जानने वाले भक्तों के योगक्षेम आदि का निर्वाह करने में अग्रसर रहने वाले, 20 प्रधानपुरुषेश्वरः – प्रकृति और पुरुष के स्वामी, 21 नारसिंहवपुः मनुष्य और सिंह दोनों के जैसा शरीर धारण करने वाले नरसिंह रूप, 22 श्रीमान् – वक्षःस्थल में सदा श्री को धारण करने वाले, 23 केशवः ब्रह्मा, विष्णु और महादेव (त्रिमूर्ति स्वरुप), 24 पुरुषोत्तमः – क्षर और अक्षर इन दोनों से सर्वथा उत्तम ॥16॥

सर्वः शर्वः शिवः स्थाणुर्भूतादिर्निधिरव्ययः । सम्भवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभुरीश्वरः ॥17॥

अर्थ – 25 सर्वः – असत् और सत्, सबकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के स्थान, 26 शर्वः सारी प्रजा का प्रलयकाल में संहार करने वाले, 27 शिवः – तीनों गुणों से परे कल्याण स्वरुप, 28 स्थाणुः – स्थिर, 29 भूतादिः – भूतों के आदिकारण, 30 निधिरव्ययः – प्रलयकाल में सब प्राणियों के लीन होने के अविनाशी स्थानरूप, 31 सम्भवः अपनी इच्छा से भली प्रकार प्रकट होने वाले, 32 भावनः समस्त भोक्ताओं के फलों को उत्पन्न करने वाले, 33 भर्ता सबका भरण करने वाले, 34 प्रभवः – दिव्य जन्म वाले, 35 प्प्रभुः सबके स्वामी, 36 ईश्वरः उपाधिरहित ऐश्वर्य वाले ॥17॥

स्वयम्भूः शम्भुरादित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः । अनादिनिधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः ॥18॥

अर्थ – 37 स्वयम्भूः – स्वयं उत्पन्न होने वाले, 38 शम्भुः – भक्तों के लिये सुख उत्पन्न करने वाले, 39 आदित्यः द्वादश आदित्यों में विष्णु नामक आदित्य, 40 पुष्कराक्षः कमल के समान नेत्र वाले, 41 महास्वनः – वेदरूप अत्यन्त महान घोष वाले, 42 अनादिनिधनः जन्म मृत्यु से रहित, 43 धाता – विश्व को धारण करने वाले, 44 विधाता – कर्म और उसके फलों की रचना करने वाले, 45 धातुरुत्तमः – कार्य- कारणरूप सम्पूर्ण प्रपंच को धारण करने वाले एवं सर्वश्रेष्ठ ॥18॥

अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः । विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः ॥19॥

अर्थ – 46 अप्रमेयः प्रमाण आदि से जानने में न आ सकने वाले, 47 हृषीकेशः – इन्द्रियों के स्वामी, 48 पद्मनाभः जगत के कारणरूप कमल को अपनी नाभि में स्थान देने वाले, 49 अमरप्रभुः – देवताओं के स्वामी, 50 विश्वकर्मा – सारे जगत की रचना करने वाले, 51 मनुः प्रजापति मनुरूप, 52 त्वष्टा – संहार के समय सम्पूर्ण प्राणियों को क्षीण करने वाले, 53 स्थविष्ठः अत्यन्त स्थूल, 54 स्थविरो ध्रुवः – अति प्राचीन एवं अत्यन्त स्थिर ॥19॥

अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः ।

प्रभूतस्त्रिककुब्धाम पवित्रं मङ्गलं परम् ॥20॥

अर्थ – 55 अग्राह्यः मन से भी ग्रहण न किये जा सक शाश्वतः – सब काल में स्थित रहने वाले, 57 कृष्णः – सब बलात अपनी ओर आकर्षित करने वाले परमानन्द लोहिताक्षः – लाल नेत्रों वाले, 59 प्रतर्दनः– प्रलयकाल में संहार करने वाले, 60 प्रभूतः – ज्ञान, ऐश्वर्य आदि गुणों से त्रिककुब्धाम – ऊपर, नीचे और मध्य भेदवाली तीनों दिशाओं के आश्रयरुप, 62 पवित्रम् – सबको पवित्र करने वाले, 63 मङ्गल परम मंगल स्वरुप ॥20॥

ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः । हिरण्यगर्भो भूगर्भो माधवो मधुसूदनः ॥21॥

अर्थ – 64 ईशानः – सर्वभूतों के नियन्ता, 65 प्राणदः – सबके प्राण संशोधन करने वाले, 66 प्राणः सबको जीवित रखने वाले प्राण स्वरुप, 67 ज्येष्ठः – सबके कारण होने से सबसे बड़े, 68 श्रेष्ठः सबमें उत्कृष्ट होने से परम श्रेष्ठ, 69 प्रजापतिः ईश्वर रूप से सारी प्रजाओं के मालिक, 70 हिरण्यगर्भः ब्रह्माण्ड रूप हिरण्यमय अण्ड के भीतर ब्रह्मा रूप से व्याप्त होने वाले, 71 भूगर्भः पृथ्वी के गर्भ में रहने वाले, 72 माधवः – लक्ष्मी के पति, 73 मधुसूदनः मधु नामक दैत्य को मारने वाले ॥21॥

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ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः । अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञः कृतिरात्मवान् ॥22॥

अर्थ – 74 ईश्वरः – सर्वशक्तिमान ईश्वर, 75 विक्रमी – शूरवीरता से युक्त, 76 धन्वी – शाङ्ग धनुष रखने वाले, 77 मेधावी – अतिशय बुद्धिमान, 78 विक्रमः – गरुड़ पक्षी द्वारा गमन करने वाले, 79 क्रमः क्रम विस्तार के कारण, 80 अनुत्तमः सर्वोत्कृष्ट, 81 दुराधर्षः – किसी से भी तिरस्कृत न हो सकने वाले, 82 कृतज्ञः– अपने निमित्त से थोड़ा सा भी त्याग किये जाने पर उसे बहुत मानने वाले, 83 कृतिः – पुरुष प्रयत्न के आधार रूप, 84 आत्मवान् अपनी ही महिमा में स्थित ॥ 22॥

सुरेशः शरणं शर्म विश्वरेताः प्रजाभवः । अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः ॥23॥

अर्थ – 85 सुरेशः – देवताओं के स्वामी, 86 शरणम् – दीन-दुःखियों के परम आश्रय, 87 शर्म परमानन्द स्वरूप, 88 विश्वरेताः विश्व के कारण, 89 प्रजाभवः – सारी प्रजा को उत्पन्न करने वाले, 90 अहः प्रकाश रूप, 91 संवत्सरः – काल रूप से स्थित, 92 व्यालः सर्प के समान ग्रहण करने में न आ सकने वाले, 93 प्रत्ययः उत्तम बुद्धि से जानने में आने वाले, 94 सर्वदर्शनः सब के द्रष्टा ॥23॥

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विष्णु सहस्रनाम पाठ के लाभ।Vishnu Sahasranamam Stotram Benefits

ऐसा माना जाता है कि विष्णु सहस्रनाम ( Vishnu Sahasranamam Stotram ) नाम का पाठ करने से बहुत जल्द सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती है।

शास्त्रो के अनुसार विष्णु सहस्त्र नाम का पाठ करने से व्यक्ति के जीवन मे सुख समृधि और उसे धन की प्राप्ति होती है । अगर आप प्रतिदिन नियमपूर्वक इसका पाठ करते है तो आपकी सभी भौतिक इक्षाएँ पूर्ण होती है । और आपके सभी बिगड़े हुए कार्यो मे सफलता मिलती है । और यह भी कहा जाता है, कि अगर आपकी कुंडली मे बृहस्पति का दुष्प्रभाव हो तो उसको कम करने के लिए भी यह बहुत फलदायी होता है। 

साथ ही ज्योतिषाचार्य का मानना है कि विष्णु सहस्रनाम में प्रत्येक नाम के लगभग एक सौ अर्थ हैं। इसलिए यह बहुत गहरा और शक्तिशाली मंत्र है। भीष्म का मानना था कि विष्णु सहस्रनाम का जाप करने या इसे सुनने वाले के सभी पाप और भय दूर हो जाते हैं। 

गीता में श्री कृष्ण कहते हैं, “मेरी लगातार प्रशंसा करना और दृढ़ संकल्प के साथ मुझ तक पहुंचने का प्रयास करना और मेरे प्रति श्रद्धा रखना मुझे मेरे भक्तों के करीब लाता है।” इसलिए निस्वार्थ भाव से ईश्वर की सेवा करना ही पूजा का सबसे शुद्ध रूप है। लोगो का मानना है कि इसका रोजाना जप करने से असंख्य लाभ होते हैं।

निष्कर्ष

आज के इस महत्वपूर्ण लेख में Vishnu Sahasranamam Stotram आपने बहुत कुछ जानकारी विस्तार से प्राप्त की है पहले आज का हमारे लिए आपके लिए महत्वपूर्ण साबित होता है तो लेख को सोशल मीडिया पर शेयर करें किसी भी प्रकार की जानकारी चाहिए तो कमेंट बॉक्स का उपयोग करना बिल्कुल भी ना भूले।

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